कबीर दास जी कहते हैं...
प्रेम न बारी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ लै जाय॥
प्रेम न तो खेत या बाड़े में उगता है और न ही हाट में बिकता है। चाहे राजा हो या प्रजा, जिसको सच्चा प्रेम चाहिए उसे अपना शीश तक देना पड़ता है क्योंकि किंचितमात्र अभिमान रखकर प्रेम नहीं किया जा सकता।
प्रेम पियाला जो पिए, सीस दक्षिना देय।
लोभी सीस न दे सके, नाम प्रेम का लेय॥
जिसको सच्चे प्रेम का रस चखना है, उसको अपने शीश को दक्षिणा में देना पड़ता है अर्थात उसे अभिमान का त्याग करना होता है। किंतु जो यह नहीं कर सकता और प्रेम का नाम लेता है, वह तो लोभी है जिसके अंदर त्याग की भावना नहीं हो सकती।
प्रेम भाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय।
चाहे घर में बास कर, चाहे बन को जाय॥
अपने अंदर प्रेम का भाव एक ही होना चाहिए, चाहे उसे आप जैसे भी दिखाएँ। कबीर दास जी भगवान् राम और भरत के प्रेम की ओर संकेत करके कहते हैं कि दोनों का प्रेम एक ही समान और अतुलनीय था। एक ने पिता के प्रति अपने प्रेम को वन जाकर निभाया था और दूसरे ने अपने भाई के प्रति प्रेम को राजमहल में सिंघासन पर खडाऊ रखकर निभाया था।
जे घट प्रेम न संचरै, ते घट जान समान।
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्रान॥
जिसके हृदय में प्रेम नहीं है, वह जीव शमशान के सदृश्य भयानक एवं त्याज्य होता है। जिस प्रकार लुहार की धौंकनी के भरी हुई खाल बग़ैर प्राण के सांस लेती है उसी प्रकार वह जीव भी प्रेम के बिना मृत के समान शमशान स्वरुप होता है।
जल में बसै कमोदिनी, चंदा बसै अकास।
जो है जाको भावना, सो ताही के पास॥
जैसे कमल जल में खिलता है, चंद्रमा आकाश में रहता है। इस दुनिया की भी यही रीति है कि जिसको जो भाता है, वह उसी के पास रहता है।
भक्ति भाव भादों नदी, सबै चलीं घहराय।
सरिता सोइ सराहिये, जो जेठ मास ठहराय॥
वैसे तो भक्ति, भावना और वर्षा ऋतु (भादों) की नदी सभी घहरे दिखते हैं। लेकिन सराहना उसी की करनी चाहिए जो विपत्ति में भी साथ दे, जैसे नदी वही सराहनीय है जो गर्मी की ऋतु में भी जल देती है।
जिन ढूँढ़ा तिन पाइयाँ, गहिरे पानी पैठ।
जो बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ॥
जिसने सच्चे प्रेम को ढूँढा, उसको वह मिल गया। लेकिन इसके लिए प्रेम की अनजान गहराइयों में उतरना पड़ता है। जो पागल इन गहराइयों में डूबने से डर गया, उसको प्रेम नहीं मिलता क्योंकि वह छिछले धरातल (किनारे) पर ही बैठा रह गया।
कहते हैं, हर रचना में अर्थ पर पाठक का अधिकार होता है, न कि कवि का। वही दुस्साहस करके मैंने इन दोहों के अर्थ लिखे हैं। त्रुटियों को क्षमा करें और आवश्यकतानुरूप सुझाएँ।
प्रेम न बारी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ लै जाय॥
प्रेम न तो खेत या बाड़े में उगता है और न ही हाट में बिकता है। चाहे राजा हो या प्रजा, जिसको सच्चा प्रेम चाहिए उसे अपना शीश तक देना पड़ता है क्योंकि किंचितमात्र अभिमान रखकर प्रेम नहीं किया जा सकता।
प्रेम पियाला जो पिए, सीस दक्षिना देय।
लोभी सीस न दे सके, नाम प्रेम का लेय॥
जिसको सच्चे प्रेम का रस चखना है, उसको अपने शीश को दक्षिणा में देना पड़ता है अर्थात उसे अभिमान का त्याग करना होता है। किंतु जो यह नहीं कर सकता और प्रेम का नाम लेता है, वह तो लोभी है जिसके अंदर त्याग की भावना नहीं हो सकती।
प्रेम भाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय।
चाहे घर में बास कर, चाहे बन को जाय॥
अपने अंदर प्रेम का भाव एक ही होना चाहिए, चाहे उसे आप जैसे भी दिखाएँ। कबीर दास जी भगवान् राम और भरत के प्रेम की ओर संकेत करके कहते हैं कि दोनों का प्रेम एक ही समान और अतुलनीय था। एक ने पिता के प्रति अपने प्रेम को वन जाकर निभाया था और दूसरे ने अपने भाई के प्रति प्रेम को राजमहल में सिंघासन पर खडाऊ रखकर निभाया था।
जे घट प्रेम न संचरै, ते घट जान समान।
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्रान॥
जिसके हृदय में प्रेम नहीं है, वह जीव शमशान के सदृश्य भयानक एवं त्याज्य होता है। जिस प्रकार लुहार की धौंकनी के भरी हुई खाल बग़ैर प्राण के सांस लेती है उसी प्रकार वह जीव भी प्रेम के बिना मृत के समान शमशान स्वरुप होता है।
जल में बसै कमोदिनी, चंदा बसै अकास।
जो है जाको भावना, सो ताही के पास॥
जैसे कमल जल में खिलता है, चंद्रमा आकाश में रहता है। इस दुनिया की भी यही रीति है कि जिसको जो भाता है, वह उसी के पास रहता है।
भक्ति भाव भादों नदी, सबै चलीं घहराय।
सरिता सोइ सराहिये, जो जेठ मास ठहराय॥
वैसे तो भक्ति, भावना और वर्षा ऋतु (भादों) की नदी सभी घहरे दिखते हैं। लेकिन सराहना उसी की करनी चाहिए जो विपत्ति में भी साथ दे, जैसे नदी वही सराहनीय है जो गर्मी की ऋतु में भी जल देती है।
जिन ढूँढ़ा तिन पाइयाँ, गहिरे पानी पैठ।
जो बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ॥
जिसने सच्चे प्रेम को ढूँढा, उसको वह मिल गया। लेकिन इसके लिए प्रेम की अनजान गहराइयों में उतरना पड़ता है। जो पागल इन गहराइयों में डूबने से डर गया, उसको प्रेम नहीं मिलता क्योंकि वह छिछले धरातल (किनारे) पर ही बैठा रह गया।
कहते हैं, हर रचना में अर्थ पर पाठक का अधिकार होता है, न कि कवि का। वही दुस्साहस करके मैंने इन दोहों के अर्थ लिखे हैं। त्रुटियों को क्षमा करें और आवश्यकतानुरूप सुझाएँ।
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